राम मिले,वनवास मिला
और त्यक्ता का परिहास मिला
संग चली थी काँटों पर भी
पर खींच लिये क्यों तुमने हाथ?
जब उगलियाँ उठी जमाने की
तो क्यों तुम, हे राम
खड़े न हो सके मेरे साथ ?
प्रेम मे, समर्पन मे
कमी रह गयी कहाँ ?
जो पूछा न एक भी बार मेरा व्यताँन्त?
तुमको परमेश्वर जाना, माना सर्वोपरि
पर मेरा तुम्हारे जीवन में
क्या स्थान था बस इतना ही ?
पराक्रम था तुम्हारा
दोष हुआ हमारा
काटी नक्ष्स लक्ष्मण ने
बिन दोष मेरा किया हरण रावण ने
ना था किया मैंने अपमान
फिर भी सहा दुषपरिणाम
रावन ने तो फिर भी सम्मान दिया
पर तुमने ना क्यों विश्वास किया?
त्यज कर मुझे, मिला यश तुम्हें
वर्षों पर क्यों खोजा भी न मुझे ?
पुत्रो को देख हुआ बड़ा अभिमान
उनका पराक्रम देख हुए यशवान
भूल जाऊ अब मैं तुम्हारा व्यवहार?
वर्षों का अपमान
दंड मिला बिना किसी अपराध
निर्णय था तुम्हारा
ना दिया अग्निपरीक्षा ने भी सहारा
उस दिन उठा नारी पर से सबका विश्वास
डाल दी तुमने परम्परा
निर्दोष खुद को करना पडेगा सिद्ध सर्वदा
अपराध हो किसी का भी
दोषी होगी नारी ही
धरा त्यागने से ही शायद कुछ
सम्मान बचा पाऊ नारी का
तो लेती हूँ विदा
हे राम,तुम हुए अब त्यक्ता
लौटा देना तुम सम्मान
नारी का है यही श्रँगार
तभी होगा सबका उद्धार .
‘रावन ने तो फिर भी सम्मान दिया
पर तुमने ना क्यों विश्वास किया?’
Very beautifully written.
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Feels good to be appreciated by u..thanks again..
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सुन्दर अभिव्यक्ति, सटीक भाषा और एक अलग नजरिया, वाह !!
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