हर दिन टूटती हूँ
हर दिन बिखरती हूँ
एक एक टुकड़ा समेटती हूँ हर दिन
सहेजती हूँ फिर से खड़ा करती हूँ खुद को
हर दिन
निरऩतर चलता रहता है प्रयास
जीवन बस प्रयत्न है अनन्त
एक नज़र एक शब्द से
बिखर जाता है पूरा प्रयास
मन का हर कोना हो जाता है छलनी
फिर पिरोती हूँ खुद को समय के धागों मे
स्त्री हूँ
हर दिन स्वयं को कर्मो के चक्र में
भूल जाती हूँ
उठना गिरना चलता है प्रतिदिन
हर दिन
Yahi niyati hai stree ki shyad. bahut sundarta se vyakt kiya hai.
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