दरख्तों से शाखाओं को
भाषा से अल्फा़ज़ो को
हटाओगे कैसे
संस्कार से आदाब को
शिक्षा से किताब को
सुर से रियाज़ को
कहानी से आगाज़ को
जुदा करोगे तो कैसे
कमीज़ को या पतलून को
मौज़ो को या रूमाल को
छोड़ोगे क्या क्या
हिम्मत तो की है बहुत तुमने
पर रच बस गया है सब अन्दर तक
जाने अनजाने घुल गया है सब
करोगे अलग
तो थोड़ा अपना भी गवाओगे
हृदय से ईमान को
जिन्दगी से प्रान को
दोस्ती से विश्वास को
इन्सान से आस को
पड़ोसी से ऐतबार को
और हर रिश्ते से प्यार को…
बहुत सुन्दर मृदुला।
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धन्यवाद इन्दिरा जी
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🙂
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