क्या करें कि हमको भी
थोड़ी सी अक्ल आ जाये
उम्र के इस दौर में
हम भी थोड़ा संभल जायें
थोड़ा सा हँसे कम
और ज़रा सा मुस्कुराए
हर बात पर उछल कर
हम न बिफर जायें
ज़माने को बदलने की
इस जिद्द को थोड़ा बिसर जायें
वक्त की हालात की
संजीदगी हमको भी समझ आये
ए काश के हम जमाने से
थोड़ा सा तो डरें
और पालतू बन जायें
महीना: फ़रवरी 2018
आज भी
साँसों मे मेरी आज भी
खुशबू सा उतरता है
आँखों में इक ख्वाब है
जो नीन्दों मे मचलता है
सवेरे के धुन्घलके मे
तू धूप सा चमकता है
आज भी मेरी जुल्फों मे
फूलों सा महकता है
यादों के मोड़ पर
तू हँसी सा खनकता है
समन्दर में अहसासों के
तू सैलाब सा उमडता है
ए प्यार तू आज भी
न जाने क्यों मेरे सीने मे धड़कता है
खाँमखाँ
इस देश का साला क्या करू
जो हर साल पीछे ही खिसकता जाता है
मुस्तकबिल में इसके दिखता है धुआं
ये माज़ी की आग में ही सुलगता जाता है
हैवानियत हर चेहरे से रिसती सी है अब
इन्सानियत का रिश्ता जैसे खत्म हुआ जाता है
दुश्मन की इसको अब ज़रूरत क्या है
अपने ही चरागो से जो भस्म हुआ जाता है
इक और कत्लेआम की तैयारी में है मुल्क
सरहद पे कोई खाँमखाँ मरा जाता है ….