इस देश का साला क्या करू
जो हर साल पीछे ही खिसकता जाता है
मुस्तकबिल में इसके दिखता है धुआं
ये माज़ी की आग में ही सुलगता जाता है
हैवानियत हर चेहरे से रिसती सी है अब
इन्सानियत का रिश्ता जैसे खत्म हुआ जाता है
दुश्मन की इसको अब ज़रूरत क्या है
अपने ही चरागो से जो भस्म हुआ जाता है
इक और कत्लेआम की तैयारी में है मुल्क
सरहद पे कोई खाँमखाँ मरा जाता है ….