मन्त्रमुग्ध तुम स्वयं पर
मस्त अपनी विजय पर
भूल धरातल को तुम
उड़ोगे ऊँचे आसमान में
खुद के ही शोर से
बहरे होते तुम
शब्द अब तर्क के
सुनाई तुम्हें देते नही
कर्णप्रिय लगते तुम्हें
केवल स्वयं के भक्ति राग
अपने ही गढे झूठ में
सही गलत से दूर तुम
मन्त्रमुग्ध तुम स्वयं पर
मस्त अपनी विजय पर
भूल धरातल को तुम
उड़ोगे ऊँचे आसमान में
खुद के ही शोर से
बहरे होते तुम
शब्द अब तर्क के
सुनाई तुम्हें देते नही
कर्णप्रिय लगते तुम्हें
केवल स्वयं के भक्ति राग
अपने ही गढे झूठ में
सही गलत से दूर तुम
भीड़ से पीछे रह जाना
भी कभी अच्छा होता है
हर रिश्ता खुशी ही दे
यह ज़रूरी तो नहीं
कुछ रिश्तों को राह
मे छोड़ जाना
भी कभी अच्छा होता है
हर आँख तुम्हें सही तौले
ये ज़रूरी तो नहीं
इन तराजू से दूर
खुद को कर पाना
भी कभी अच्छा होता है
भीड़ के संग बहक जाना
ये ज़रूरी तो नहीं
गलत हो कदम तो
पाँव को अपने थाम लेना
भी कभी अच्छा होता है
बिझड़ने से ही लोग
जुदा नही होते
पास होकर भी ऐ दोस्त
फ़ासले बहुतेरे हैं
दरियाओं से ही सिर्फ
समन्दर नहीं बनते
इन आँखों से भी बहे
सागर बहुतेरे हैं
आग से ही नही जले
आशियाने दुनिया में
शक ने भी किये खाक
रिश्ते बहुतेरे हैं
दरख्तों से शाखाओं को
भाषा से अल्फा़ज़ो को
हटाओगे कैसे
संस्कार से आदाब को
शिक्षा से किताब को
सुर से रियाज़ को
कहानी से आगाज़ को
जुदा करोगे तो कैसे
कमीज़ को या पतलून को
मौज़ो को या रूमाल को
छोड़ोगे क्या क्या
हिम्मत तो की है बहुत तुमने
पर रच बस गया है सब अन्दर तक
जाने अनजाने घुल गया है सब
करोगे अलग
तो थोड़ा अपना भी गवाओगे
हृदय से ईमान को
जिन्दगी से प्रान को
दोस्ती से विश्वास को
इन्सान से आस को
पड़ोसी से ऐतबार को
और हर रिश्ते से प्यार को…
जीत तेरी तो हार भी तेरी
मंजिल तेरी तो राह भी तेरी
नियति मेरी तो है इच्छा तेरी
सुख की और दुख की
है जीवन में मेरे सब चालें तेरी
आँसू मेरे है बस नादानी मेरी
प्रयास मेरा है जिम्मेदारी मेरी
न शरीर मेरा और न साँसे मेरी
अस्तित्व मेरा तो है बस इक कृति तेरी
सबकुछ है तेरा और है लीला भी तेरी
समर्पण हो मेरा तो है मुक्ति भी मेरी …
प्यार ले मै अपना
द्वार से तुम्हारे निकल आया
घृणा तुम्हारी संग चली कुछ दूर
हारी थकी अकेली सी फिर लौट गई
राह हुई फिर अलग हमारी
तुम्हारे संग घृणा तुम्हारी
हमने तो प्यार हमारा
समेट लिया कतरा कतरा
मन था शान्त चितत् थोड़ा उदास
कहीं दुख तो न हुआ होगा तुम्हें
देख खुद से दूर जाते हमें
प्यार भी टपका अश्रु बन आँखों से मेरे
पर सींच न पाया घृणा के काँटे तेरे
घृणा तुम्हारी लौटेगी तुमतक
हो बलवान अधिक
और प्यार मेरा सिमटेगा मुझतक
जीतेगा कौन और हारा कौन
गूँजेगा प्रश्न यही
अब सदी दर सदी…
यूँ तो तेरा प्यार
इक बहाना था
नियति का खेल
बड़ा ही निराला था
कुछ तुम्हारी मज़बूरिया थी
कुछ हमें भी फ़र्ज़ निभाना था
मंजिलों को चले तो थे साथ मगर
इन रास्तों ने हमें भटकाना था
और कुछ तो रफ्तार तुम्हारी तेज़ थी
कुछ काँटों ने भी दामन मेरा उलझाना था
यह नियति का खेल
बड़ा ही निराला था
बस तेरा प्यार
ही एक सहारा था
क्यों तोड़ने की बातें करते हो
क्यों नहीं मिल कर खुशियाँ मनाते
दिल की चोट मन की पीड़ा
क्यों नहीं प्यार से हर ज़ख़्म मिटाते
घावों की टीस बद्दुआ न बन जाए कहीं
इतना भी नहीं किसी को सताते
दुख देकर कभी सुख मिलता नहीं
आँसुओं से फूल हैं क्या कभी खिल पाते
मुस्कुराहटे देकर किसी को कभी
चलो आओ अपने दिल को हैं सजाते
दिल पर, कुछ तुम्हारे कुछ हमारे
आओ है मिलकर मरहम लगाते..
प्यार मेरा हार गया
घृणा तुम्हारी जीत गई
प्यार मेरा अपमानित दरवाजे
से तुम्हारे लौट आया
घृणा तुम्हारी हर दहलीज़
पार कर दिलों में जा पनपी
प्यार मेरा कमज़ोर रहा
पल भर में कुम्हला गया
घृणा तुम्हारी सबल रही
हर पल बड़ती ही गई
आये थे झोली फैलाये
भीख प्यार की मांगने
इल्ज़ामो से यार ने
दामन ही भर दिया
ढाल हमेशा समझते रहे
जिसको अपनी
पत्थर पहला न जाने क्यों
उसने ही उठा लिया ….