क्यों सीमाओं में बंधते हो
कभी जात की कभी धर्म की
क्यों बाँधा हैं खुद को
देश में कभी समाज में
जकड़ा हैं स्वयं को
कभी उम्र में कभी ओहदे में
कभी मोह में कभी ऐश्वर्य में
कभी काले में तो कभी गोरे में
कभी स्त्री में कभी पुरुष मे
खुद ही अपने को बाँध लिया
बड़े में तो कभी छोटे मे
न होता यह सब
तो उड़ते स्वच्छंद हम भी आकाश में
बस मन का ही तो फेर था
और डर का ही तो खेल था
इक जीना ही तो था
क्या पा लिया विकास से
घरौंदे छोटे होते गये
इस गोले से बाहर तक तो निकल न सके
इक दूजे पर गोलियां चलाना और सीख गये
इतने ही काबिल थे तो जहान बनाते नये
और छोटे होते गए दायरे
कभी भाषा के तो कभी संस्कार के
मन जकडता गया
छोटे होते में कारावास में